शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

* लिहाफ *











पता नही मेरी राहें, तुझ तक पहुंच पाएंगी या नहीं !
जिन्दगी के मेले में बहुत देर बाद मिले तुम !!


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अपने आप को ख़ुशी का लिहाफ ओढा,
मैं खुद को बहुत सुखी समझती रही,
पर तुम्हारी एक प्यार -भरी 'दस्तक' ने
मेरे मोह को तोड़ डाला ,
छिन्न -भिन्न कर डाला ,
तुम्हारा दीवाना- पन !
मुझे पाने की ललक ! 
समर्पण की ऐसी भावना !
मुझे अंदर तक उद्वेलित कर गई ---!
मैं कब तक चुप रहती ?
कभी तो मेरी भावनाएं --
खुले आकाश में विचरण करने को मचलेगी !
अपने अस्तित्व को नकार कर --
मैनें तुम्हे 'हां' तो नही की मगर ,
तुमने एक झोंके की तरह ,
मेरी बिखरी जिन्दगी में प्रवेश किया, 
मुझे धरा से उठाकर अपनी पलकों पे सजाया ...
मै अपने अभिमान में चूर ..
तुम्हे 'न 'करती रही 
और तुम बड़ी सहजता से आगे बढ़ते रहे ---
कब तक ? आखिर कब तक ---
अपनी अतृप्त भावनाओं की गठरी को सम्भाल पाती ,
उसे तो गिरना ही था --

"जिसे चाहा वो मिला नही ?
   जो मिला उसे चाहा नही ?"

इस जीवन-रूपी नैया को ,
बिन पतवार मैं  कब तक खेऊ ,  
तुम मांझी बन, मुझे पार लगाओ तो जानू  ?

          तुम से मिलकर मेरी हसरते ! उमंगे जवान होने लगी                          
और मैं अपने वजूद के ,
एक -एक तिनके को समेटने लगी  -- 
लिहाफ  खुलने लगा है ----------???  




 * * लिहाफ खुलने लगा  * *

    

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी... जबाब नही. बहुत खुब.
    इस शब्द पुष्टिकरण को हटा दे, अच्छा होगा आप के लिये, क्योकि यह तंग करता हे टिपण्णी देने के वक्त, ओर इस का लाभ कुछ नही. धन्यवाद

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