आज फिर छली गई .....
उसी व्यक्ति के हाथो ....
जिससे हमेशा प्यार करती थी ......!
जिसने कठिन राहों से निकालकर मुझे
प्यार की फुलवारी में चलना सिखाया ..
आज मुझे कांटो भरे रेगिस्थान मैं छोड़कर ,
खुद न जाने कहाँ विलीन हो गया .....?
आवाज़ देती हूँ तो --------
दूर र्रर्रर्रर घाटियों में गूंजकर लौट आती हैं ....
कुछ दिखाई नहीं देता ....
चारों और धुंध छाई हुई हैं ....
घुप!अँधेरा सिमटा हुआ हैं ...
"कैसें उसे भूलूं ?????
वो तो पल्ला झाड़कर कब का जा चूका हैं ..
शायद उसको 'मोह' ही नहीं था मुझसे ?
वरना रुक जाता ...????????
अब, मैं प्रीत की मारी जोगन
नगरी -नगरी घूम रही हूँ ..
किस ढोर -ठिकाना उसका ...
नदियाँ पहाड़ रौंध रहीं हूँ ....
अपने हाथों चमन लुटाकर ,
आज तमाशा देख रही हूँ ......!
बहुत बेहतरीन....
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